कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे: नीरज

  • [By: Meerut Desk || 2024-12-12 13:02 IST
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे: नीरज

कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे: नीरज

स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से 
लुट गए सिंगार सभी बाग़ के बबूल से 
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे 
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे 

नींद भी खुली न थी कि हाए धूप ढल गई 
पाँव जब तलक उठे कि ज़िंदगी फिसल गई 
पात-पात झड़ गए कि शाख़-शाख़ जल गई 
चाह तो निकल सकी, न पर उमर निकल गई 
गीत अश्क बन गए
छंद हो दफ़न गए 
साथ के सभी दिए धुआँ पहन-पहन गए 
और हम झुके-झुके
मोड़ पर रुके-रुके 
उम्र के चढ़ाव का उतार देखते रहे 
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे 

क्या शबाब था कि फूल-फूल प्यार कर उठा 
क्या स्वरूप था कि देख आइना सिहर उठा 
इस तरफ़ ज़मीन उठी तो आसमान उधर उठा 
थाम कर जिगर उठा कि जो मिला नज़र उठा 
एक दिन मगर यहाँ 
ऐसी कुछ हवा चली 
लुट गई कली-कली कि घुट गई गली-गली 
और हम लुटे-लुटे 
वक़्त से पिटे-पिटे 
साँस की शराब का ख़ुमार देखते रहे 
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे 

हाथ थे मिले कि ज़ुल्फ़ चाँद की सँवार दूँ 
होंठ थे खुले कि हर बहार को पुकार दूँ 
दर्द था दिया गया कि हर दुखी को प्यार दूँ 
और साँस यूँ कि स्वर्ग भूमी पर उतार दूँ 
हो सका न कुछ मगर 
शाम बन गई सहर 
वो उठी लहर कि दह गए क़िले बिखर-बिखर 
और हम डरे-डरे 
नीर नैन में भरे 
ओढ़कर कफ़न पड़े मज़ार देखते रहे 
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे 

माँग भर चली कि एक जब नई-नई किरन 
ढोलकें धमक उठीं ठुमक उठे चरन-चरन 
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन 
गाँव सब उमड पड़ा बहक उठे नयन-नयन 
पर तभी ज़हर भरी 
गाज एक वो गिरी 
पुँछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी 
और हम अंजान से 
दूर के मकान से 
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे 
कारवाँ गुज़र गया ग़ुबार देखते रहे 

-गोपालदास नीरज

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